UP Politics : अंबेडकर, परशुराम और लोहिया संग घूमेगा साइकिल का पहिया

UP Politics : अंबेडकर, परशुराम और लोहिया संग घूमेगा साइकिल का पहिया
पत्रिका पॉलिटिकल स्टोरी
लखनऊ. राजनीति संभावनाओं का खेल है। नेता को यहां आकाश में तनी रस्सी पर चलने का राजनीतिक कौशल दिखाना पड़ता है। तब कहीं जाकर वोटबैंक तैयार होता है। कुछ इसी तरह की रस्सी पर इन दिनों समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव संतुलन साधने की कवायद में जुटे हैं। कहीं बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की नीतियों का बखान, कहीं ब्राह्मणों के महापुरुष परशुराम का गुणगान तो कहीं समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों को आत्मसात करने की सीख वह पार्टी कार्यकर्ताओं को दे रहे हैं। यानी सत्तापरक राजनीति की हर दांव चल रहे हैं अखिलेश।
मुलायम सिंह यादव की सपा जुझारू कार्यकर्ताओं और मजबूत संगठन के लिए जानी जाती थी। पार्टी के लाल टोपीधारी कार्यकर्ता समाजवादी चिंतक डॉ. लोहिया की नीतियों को लेकर जमीनी संघर्ष करते दिखते थे। लेकिन, अखिलेश की सपा में अब डॉ. लोहिया के साथ डॉ. अंबेडकर और परशुराम की भी चर्चा आम है। कार्यकर्ता जिलों में परशुराम की मूर्तियों का अनावरण कर रहे हैं तो खुद अखिलेश परशुराम जंयती मनाने और विशालकाय मूर्ति लगाने की बात करते हैं। यानी हिंदुत्व, ब्राह्मणवाद, बहुजनवाद के साथ समाजवाद का संतुलन साधने की कवायद जारी है।
पहली बार सपा दफ्तर में आंबेडकर का चित्र
ढाई दशक बाद सपा और बसपा 12 जनवरी, 2019 को एक मंच पर आए थे। तब दोनों पार्टियों के प्रमुखों ने गठबंधन का एलान किया था। इसी के बाद पहली बार बड़ी संख्या में बसपा और बामसेफ के लोग भी सपा से जुड़े। तब सपा कार्यालय में डॉ. आंबेडकर का चित्र लगा। बाबा साहब की जयंती मनायी गयी। लेकिन, 23 जून, 2019 को मायावती ने एसपी से गठबंधन तोड़ दिया। मायावती तो अलग हो गयीं लेकिन बाबा साहब के अनुयायी सपा से जुड़े रहे। अखिलेश यादव इन दिनों बसपा पर हमलावर हैं। वह बसपा में उपेक्षित लेकिन बड़े नेताओं को अपने साथ जोड़ रहे हैं।
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सवर्णां की बेचैनी कम करने के लिए परशुराम
पार्टी में बहुजन वैचारिकी का प्रभुत्व बढऩे से पार्टी से जुड़े ब्राह्मण नेताओं में बेचैनी बढ़ी। इस बीच योगी सरकार में ब्राह्मणों के उत्पीडऩ का मुद्दा गरमाया तो सपा ने एक तीर से दो निशाने साधते हुए ब्राह्मणो के महापुरुष परशुराम से जुड़ाव प्रदर्शित करना शुरू कर दिया। सवर्ण वोटों की प्रासंगिकता को देखते हुए परशुराम की मूर्तियां लगाने, सवर्ण आयोग बनाने और गऱीब ब्राह्मण लड़कियों की शादी कराने का वादा सपा में किया जाने लगा।
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लोहिया और उनकी विचारधारा
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अखिलेश यादव वही सब कुछ कर रहे हैं जो सत्तापरक राजनीति में होता है। समाजवादी पार्टी की स्थापना डॉ. राममनोहर लोहिया के समाजवाद को लेकर हुई थी। पार्टी का वैचारिक आधार लोहियावाद ही था। अब सवाल उठ रहा है कि क्या क्या बिना की वैचारिकी के सत्ता हासिल की जा सकती है? परशुराम आधारित ब्राह्मण राजनीति और बहुजनवादी सामाजिक न्याय की राजनीति के बीच आखिर समाजवाद का संतुलन कैसे बैठेगा? जाति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का मुकाबला करने के लिए पार्टी की क्या तैयारी है? जमीनी स्तर पर आंदोलन, बूथ प्रबंधन और संगठन की सक्रियता चुनाव जीतने के लिए जरूरी है। क्या अखिलेश की सपा इस मोर्चे पर मजबूत है?
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भाजपा रेहड़ी-पटरीवालों को ऋण देने की बात भी कह रही है और उनके आत्मनिर्भर होने की विरोधाभासी बात भी. इस झूठी मदद के लिए ‘बड़े लोगों’ ने जितना प्रचार में ख़र्च किया है अगर इतना सच में रेहड़ी-पटरीवालों को दे देते तो लाखों लोगों का भला हो जाता.
पटरीवाले ही भाजपा को सड़क पर लाएँगे. pic.twitter.com/hHKhror7fQ
— Akhilesh Yadav (@yadavakhilesh) October 28, 2020
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